प्रत्येक प्राणीमात्रके शरीर रचना में जो इंद्रियकरणा उस प्राणी की शरीर पात्रता अनुरूप . जो पात्रता लेती है। याने पशु, पक्षी, किडे, चींटी से लेकर मनुष्य शरीर वर्तना तक; इंद्रिय पात्रता की जो वर्तना है वह वर्तना एक आयाम अनुरूपताको प्रसादमें लेकर विकसित हुई है। उस आयाम की जो प्रगाढ़ता है वह प्रगाढ़ता हरएक इंद्रियको एक तरफसे अंतर जगत अनरूप प्रत्यक्षता देती है और एक तरफसे शरीर और सष्टी जगत अनरूप पात्रता प्रसादता प्रगाढ़तामें ले जाती है । याने शरीरकी प्रत्येक प्राणी की इंद्रिय वर्तना किसी विशिष्ट पात्रता अनुरूप विकसित स्वरुपमें आती है याने सब प्राणीयोंको मुँह होता है, दिमाग होता है परंतु मनुष्य की तरह सब प्राणीयोंको बोलना नहीं आता; या उस अनुरूप आकलन क्षमता नहीं होती है। फिर समान इंद्रिय धारणामें होनेवाली पंचतत्व धारीत पात्रताके वर्तनमें विकसन पर प्रधानता लेती है।
संवेदनशास्त्र यह ऐसा शास्त्र है कि, वह सिर्फ हृदय संवेदनापर अनुभूत होता है, उसके पहचानके लिये शरीर विद्युता याने तापमान, जिस केंद्र अनुरूपतामें 'प्राणके जडत्व धारीतको' गठन संघटित करता है, उस संगठनके केंद्रकी जो प्रगाढता है, उसपर प्रभावशील होनेवाले शरीरपर अर्थात उस शरीरमें विराजित प्राण वर्तनको उत्तम अनुभूती वर्तीत करता है। याने जिस शरीरमें प्राणतत्व शरीर विद्युता के केंद्रपर आबद्धित है, उस केंद्रपर शरीर विद्युता तथा प्राण तत्व एक तरीकेके सुगम आबद्धतामें आवर्तीत हो जाय, तो यह संवेदन वर्तना प्रभाव वर्तीत होनेकी पात्रता खुल जाती है, याने प्रभाव पात्रतामें आती है । अब यह संवेदन पात्रता प्रभाव पात्रतामें आनेकी कुछ विशेष मार्गता है क्या? या किन किन कारणोंपर यह पात्रता प्रगाढता वर्तिता देती है? इसकी खोज पात्रतामें आवर्तना ले ली जाए तो, नीचेकी कुछ कारण वर्तना उसकी प्रसादिता देती है।
१) गर्भधारण कालमें गर्भाशयमें प्रवेशित होते वीर्यकणको माताने श्वास अंदर लेते हए स्थितिमें अपनाया है, तब-
२) वीर्यकणमें आबद्धित प्राणकरण के प्राणकी पांचोंअवस्थाओंमें एक वर्तीत किये धारणपर प्राणकी चौथी अवस्था जो स्पंदनसे अस्पंदनकी ओर जानेकी पात्रता है,उसको साबित वर्तनपर गर्भाशयमें प्रवेश किया है तो।
३) मातापिताकी तथा वंश धारीत उनके आप्तोंकी संवेदन वाहन (वहन) कोमल धारणपर है तो -
४) उम्रसाल २।। के बाद जो बेलीमें (नाभीमें) बदलाव आते हैं, तब वैज्ञानिक रूपसे नाभीको संतुलित प्रक्रिया में लिया गया तो –
५) तथा प्राणकरण उसके स्वचर्य वर्तनपर संवेदना सक्षम हो तब ।आमतौरसे बाकी कारणोंको नानजर करके भी संवेदना आभूषित व्यक्तित्व कमसे कम ऊपरके कारणोंमेंसे तीन कारणोंमें पात्रता रखना अति आवश्यक है। परंतु इनमेंसे कोईभी पात्रता नहीं होकर भी ध्यान भक्ती मार्गको उचित वर्तनपर अपनाया जाए या किसी महागुरूकी कृपा दृष्टीकी देन किसीके नाभी केंद्रको संतुलीत किये जानेसे, संवेदना प्रगाढता अपनाई जा सकती है।लेकिन अंतरंगपर मधुर धारीताका स्पंदन आरोपित करनेवाली या मधुरता निस्तेजताकी वर्तना बाधित हो गयी तब उसको पहचाननेवाले शरीरमें अनभूत होनेवाली यह वर्तना क्या है? ऐसी सवाल धारणता सहजपात्रतापर वर्तन ले सकती है।
परंतु इसके आकलन क्षमताके आवर्तनमें समझ पात्रतापर लेनेकी कोशिश करते समय हमें एक बात को ध्यानमें रखना अति आवश्यक है, कि संवेदन धारणाकी पहचान तभी प्रसादता देती है, कि जिस शरीरकी सांस, "पूर्निमासे अमावस, तथा अमावससे पूर्निमाके ओर" जानेवाले जो पंद्रह पंद्रह आवर्तन है, उनमेंसे किसीभी कमसे कम चार आवर्तनमें अर्थात तिथिमें नाकसे अंदर जानेवाली साँस अगर नाभीको छ्ती नहीं है, तब ऐसे व्यक्तित्वके शरीर संचरणमें वायु तत्वकी प्रहारता कभीभी मृदुलता प्रधानता नहीं लेनेके कारण, संवेदन धारणपर वह व्यक्तित्व भिखारीपनकी हालतपर होता है। संवेदन धारणकी बात उसके वायुतत्व धारणपर अनबुज पात्रता वर्तीत करती है, फिर चाहे मस्तिष्क तौरपर उसकी ज्ञानता कितनी भी प्रगाढित क्यों न हो।अब संवेदन धारणताकी वर्तना शब्द पात्रित करनेकी - कोशिशमें हम यह बात कहना चाहेंगे की, संवेदनाके पहचानकीवर्तना आकलनपर लानेका केंद्र हृदय है । तथापि सिर्फ हृदयही उसको संवादित नहीं करके हृदयकी जो किवाड है, वह उसका बंद होना या खुलनेका कार्य करते समय जो एक तरहका सूक्ष्म दबाव हृदयके तथा उसके आसपासके स्नायू वर्तनापर आता है, वह दबाव जितने भारी पात्रतापर दबावमें आता है, उतने जादा या कम पात्रतापर उस व्यक्तित्वकी संवेदन पात्रता अवतरीता देती है ।
तथा जितनी जादा इस दबावकी पात्रता अनुगृहीता देती है, उतनीही जादा पात्रतापर साँसकी गहराई अवलंबन धारणता लेती है । तथा परसुख धारणता याने दूसरेके सुखकी अधिकता वहाँ अपने आप स्थित धारणता अवलंबित करती है।रक्तशुचिर धारण वर्तनमें यह दबावकी वर्तना सिर्फ दबाव वर्तनपर क्रियाशील नहीं होकर एक सूक्ष्म झंकार वहां वर्तीत करती है, वह जो सूक्ष्म झंकार जब उस व्यक्तित्वके स्पंदन पात्रतासे निकलता है, तब अष्टदिशाओंसे जो उस झंकार पात्रताके तौरपर प्रती झंकारकी स्पंदनपात्रता प्रतिफलीता करता है, उस प्रती झंकारके स्पंदनवर्तनाकी जो पहचान है उसको साधारण पात्रता वर्तनपर हम संवेदना' कह सकते हैं ।
अब यह संवेदनाकी प्रगाढता जितनी प्रमाणता समृद्धता वर्तीत करेगी - उतने पैमानेपरकी मात्रा अनुरूप दूसरे चीजसे निकली हुई प्रती झंकारकी स्पंदन पात्रता उस शरीरके व्यक्तित्वपर पहचानकी अनुभूती लेगी।अगर कोई व्यक्तित्व परम सिकुडाव धारणपर वर्तीत है । उसके सांसने कभी नाभीकी गहराई छुई नहीं तथा उसके हृदय पात्रतापर कभी किवाड़के कार्यके दबावके कारण झंकार पात्रता अनुभूत की नहीं है, तब ऐसे शरीरमें या व्यक्तित्वमें किसी चीजसे निकलनेवाली प्रती झंकारता अनुभवमें नहीं आयेगी । तथा 'पर' याने दूसरेके सुखकी वर्तनाकी पहचान उसको छुयेगी नहीं । संवेदना
अगर शरीर विज्ञानके वर्तनपर झंकार वर्तनमें आवर्तन नहीं रख सकती है, तब प्रती झंकार स्वरूप दूसरे पदार्थोंसे, चीजोंसे व्यक्तित्वसे अर्थात कणकणसे प्रती झंकारीत हुई प्रती वर्तना उस शरीरके पेशी पात्रताके रसायन स्वरूपतापर सुगमतासे प्रभावित नहीं हो सकती है ।संवेदन शास्त्र यह एक ऐसा शास्त्र है जो आत्मसत्ताने शरीर विद्युता तथा पंचतत्वके माध्यमसे सृष्टी जीवनकी रमणीयताकी परमता जो ऊर्जा ऊर्ध्वगमित वर्तनाकी साध्यको प्रसादिता देता है, उसके प्रत्यक्षतामें वर्तीत करनेकी मार्गता अवतरीत करता है।शरीर साधन वर्तनपर अगर संवेदन धारण शुचिर वर्तनपर प्रमाणिता दे सकता है, तो उस संवेदन धारणके वर्तनापर मस्तिष्क कुछ केंद्र प्रसादिता स्वरूपतामें सक्रियता लेता है । (जादा मालुमातके लिये सुगम समाधी साधन किताब देखें) जो केंद्र दो आँखोंको जो सृष्टीकी रमणीयता है उसके परे सृष्टी सूक्ष्मताकी पहचान अनायास सिद्ध पात्रित करता है, तथा जिस शरीरमें संवेदन धारण परम पात्रित है, उस शरीरमें प्राणकी जो पांच पात्रता है (जादा मालुमात चेतना विद्युता किताबमें देखें) उनमें पांचवे पात्रताकी वर्तना है, जो अस्पंदन धारणाकी वर्तना है' उसके साथ कुछ विशिष्ट तिथिमें अर्थात पृथ्वीके कुछ विशिष्ट फेरीयोंके वर्तनमें अपनेआप शरीर वर्तनमें प्रतिसादीत होती है। तथा जिस शरीरमें कुछ विशिष्ट तिथिमें प्राण पात्रता अनायास अस्पंदन वर्तनमें प्रतिसादीता लेता है, उस शरीरकी स्पंदन अवस्था अर्थात राग, लोभ, मोह, ईर्षा, तृष्णा, काम, दुःख तथा हास्य संवेदना अनायास संतुलन वर्तनमें आती है ।
अगर किसी शरीरमें पृथ्वीके ३६५ फेरोमें कुछ विशिष्ट फेरीयोंके दिनमें स्पंदन पात्रता याने अष्ट संवेदना संतुलीत वर्तनपर आतीही रहेगी, तो उस शरीरकी अवस्था बार बार शुचिर स्पंदनोंसे "धोये जानेवाले घरके" समान होती है, तथा इस तरह शरीरके धोये जानेवाले प्रक्रियासे शरीरके पूरे अवयवोंको एक तरहका स्नान अर्थात धोये जानेकी प्रक्रिया वर्तीत करता है । जिससे अष्टसंवेदनाओंके कारण पूरे शरीरमें नाडीसंस्थानपर आनेवाला दबाव तिरोहित (खतम) करता है तथा रक्त संचलनकी गति संतुलीत करता है, उसीसे मूत्राशयका कार्य परम पात्रित होकर मलमूत्र विसर्जनकी क्रिया सुधारपात्रता या रीती व्यवस्थिताको अपनाती है।
मनुष्य जीवनमें संवेदनाकी प्रभावता जगना अति आवश्यक . है, क्योंकि कितनाभी दूसरेको 'दूसरा' कहे सृष्टी नियमोंके स्पंदन प्रती स्पंदन वर्तनमें कुछ खास आयामके वर्तनपर "हम एक दूसरेसे जुड़े होनेके कारण" संवेदनाकी जागृतता घट जानेवाले शरीरका नाडीसंस्थान, मस्तिष्ककेंद्र पात्रता अनायास सिकुडाव पात्रता अवतरीत करती है । उसीसे उस व्यक्तित्व जीवनके शरीरमें जो बाहरसे ऊर्जा आकर्षणके केंद्र है, याने
१) सांस,
२) नाभी,
३) त्वचा (खाल) इनकी पात्रता सिकुडावमें आनेके कारण ऊर्जा आकर्षणका कार्य गती मंदतामें आता है, उसके कारण शक्तिहीन हो जानेवाले शरीरकी प्रतिकार शक्ती कम होती है । तथा उसके कारण शरीर तापमानसे जादा उष्णता अंकनका किटाणु शरीरमें
प्रवेशपात्रित हुआ तब ऊर्जा निशक्ती करणके शरीरसे, वह शरीर “कार्य अनुरूप वर्तनपर" मलमूत्रद्वारा बाहर फेका नहीं जानेसे शरीरमें प्रगाढता पाता है।संवेदन शास्त्रकी पहचान मनुष्य शरीरमें इसलिये ही परम महत्वकी वर्तना रखती है, कि जिस शरीरमें वह प्राणतत्व विचरण वर्तीत है, उस शरीरके परे उसका अस्तित्व क्या है? अर्थात शरीरमें जो जिंदापनकी चलनता है, वह शरीर परे अवस्था क्या वर्तनता रखती है? तथा उस वर्तनको
अपनाते हुए, याने शरीर धारणमें "मैं शरीर हूँ" इस पात्रता परेकी स्थिति अपनाई जाते मार्ग वर्तनमें, शरीर और अशरीरके "एक साथ नर्तन वर्तनमें" सोनेको सुगंध जैसे पात्रता वर्तनमें खुदका तथा दूसरेका जीवन सहचरण वर्तनमें अपनेआप सिद्धता देता है । मनुष्य जीवनकी मधुर गंधता यह है, कि वह अष्ट संवेदना अर्थात राग, लोभ, मोह, ईर्षा, तृष्णा, काम, दुःख तथा हास्य वर्तनमें रहकर, उनके संतुलित मार्ग वर्तनका अवलंबन करे । तथा शरीर विद्युता अर्थात तापमान शरीर पात्रता अनुरूप रखकर उसे परे पात्रताकी ऊर्ध्वता मार्ग अवलंबिता ले, तथा इन दो आयामोंको अपनाते हुए 'शरीर पंचतत्व' इनके संतुलनमें रखें। इसीसे मनुष्य शरीर, जीवन सुखचरणमें आता है, शरीर स्वस्थता उसमें अनायास प्रसादिता देती है, कोईभी उच्चतापमानके किटाणुको शरीरमें प्रगाढता पाना मुश्कील होता है ।
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या उपर उपर से समान लगनेवाली इंद्रिय करणामें, अंतर रचना धारणा अनुरूप ऐसी कोई सूक्ष्मता है क्या? कि जो विशिष्ट विकसन आयाम के कारण इंद्रिय को विशेष पात्रता अवतरीत करती है।प्राणी मात्र को छोडे तो भी, सर्व मनुष्य जीवनमें भी सर्व इंद्रिय समान होनेवाले रचना करणमें प्रत्येक आदमीकी इंद्रिय पात्रता आकलन वर्तना पर और उस इंद्रियके कार्यपात्रता पर एक पात्रता वर्तीत करती नहीं है।संक्षिप्तमें पंचतत्व धारीता इंद्रिय करणामें किसी दुसरे आयामके विकसनके अवलंबन पर निर्भर होनेवाली और सामान्य तौरपर आकलन क्षमतामें न सिद्धतामें आनेवाले, आयाम स्वरुपकी एक निश्चितता ऐसी है की, जिसके कारण मनुष्य शरीरकी कार्यता उसके इंद्रियकी कार्यताको प्रखरता बलीत करती है ।यह सहसा जानकारी में न आनेवाली या जड साधन यंत्र पर सहसा न पकडने जानेवाली सूक्ष्म मार्गता जो है वह प्रवाहिता ऊर्जता है जो प्रवाहिता ऊर्जता; जिसका श्रोत शरीर अंतर्गत न होकर बाह्य वर्तीत है और यह बाह्य वर्तना सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता शरीर पात्रतामें इंद्रिय करणापर जब पराक्रम अवतरित होती है। उस समय उस इंद्रियको स्वास्थ्यता अनुरूप अंतरंग शरीर धारणा और स्वस्थता अनुरूप प्रसादिता वर्तीत करती है।यह सूक्ष्म प्रवाहित ऊर्जता जब शरीरमें प्रवेशमान होती है उस समय अगर शरीरकी पंचतत्वधारीत अवयव धारणा मासपेशी करणा पर ऐसी पात्रता रखती होगी कि, जो अवयव करणाकी रचना मासपेशी धारणा पर अवतरीत तो है ही; परंतु उस अवयव में रक्त संचलनकी जो कार्यता है उस कार्यता को; सुगती पात्रतामें प्रसादीता देती है; यानी शरीरमें जो रक्त संचलन अवतरीत होता है, उस रक्त संचलन की; हृदय से लेकर अवयव की तरफ और अवयवसे लेकर हृदय की तरफ जानेकी और आनेकी जो गती पात्रता है; उस गती पात्रताके साथ अवयव रचनाकी मासपेशीयाँ अगर संतुलन रखती है; याने रक्त संचलनकी एक मिनिट में जितनी आनेकी और जानेकी फेरीयाँ होनी होगी, उस आनेकी और जानेकी रक्तकी जो फेरीयाँ है; वह फेरियाँ, और अवयव रचनाकी, मासपेशीयोंका; रक्त संधान पर होनेवाले__ .
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१२ परिणामके अनुरूप वह पेशीयाँ खद को समंदीत करते समय एक ऐसी कार्यता पटीत होती है की; रक्त संधानकी हृदयकी ओर आनेवाली और जानेवाली संचलन की कार्यता और शरीरकी मासपेशीकी संतुलनता; इनकी सुगती बाहरी वातावरणकी सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जताको
१) नाभी २) त्वचा ३) श्वास
इनके द्वारा एक आकर्षण अनुरूपता प्रसादीत करती है और वह सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जताकी प्रखरता या न प्रखरता; शरीरके प्राण चैतन्य पात्रता पर जडत्व बंधनताको कम या ज्यादा प्रमाणपर नष्ट करती हैं ।
यह बाह्य वातावरणकी सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता ऐसी प्रवाहीत होती है की, रक्त संचलन और शरीर पेशीकरणाकी रक्त संचलन के साथ अवतरीत होनेवाली स्पंदन संतुलनता; इस कार्यकारणाके साथ शरीरमें आकर्षण वर्तन करके; उस सूक्ष्म प्रवाहिता ऊर्जताके आकर्षणका संतुलन; शरीरमें १) कार्य श्वास गती, २) शरीर तापमान से कम या ज्यादा, तापमान का किटाणु शरीरमें गया, तो बाहर फिरसे फेंक दीया जाये, ३) अष्ट विकार धारणा की प्रखरता कम करना; इस पात्रता पर उपचारीत सुगम करणा में होती है।
इससे जिस शरीरमें रक्त संचलन गती और शरीर मासपेशी स्पंदन का संतुलन नहीं होता है । या वह स्पंदना कम पात्रता रखती है, उस अनुरूप वह शरीर, वातावरणसे सूक्ष्म मार्गता प्रवाहित ऊर्जता आकर्षण धारणाकी पात्रता अवतरीत न करनेसे, जो असंतुलन वर्तनाकी जानकारी शरीर कार्य वर्तना देता है वहां रोग हुआ है, एसी संबोधना वर्तीत की जाती है।
यह रोग वर्तना नामकी घटना उस असंतुलीता या कम संतुलीत होनेवाले पेशीकरणमें, प्राण करणाकी जो तादात्मता होती है, उसको महसूस करता है । और वह असंतुलीत या कम संतुलीत होनेवाली महसूस वर्तनाको वेदना अवतरण संबोधित करते है।
फिर यह असंतुलनता कोईभी मार्गसे हुई हो, याने शरीरमें कोईभी उच्च तापमान का किटाणु जाकर, या शरीर कार्य बाह्य वातावरणसे थंडता या उष्णताके परिणाम पात्रतामें
आकर, या शरीरके बाहरी प्रत्येक कणानुकणाकी जो स्पंदनता है वह स्पंदनता सतत शरीर पर परिणाम करती है, उससे या, कभी कभी कर्मधारा अनुरूप के आधारपर अर्थात उस शरीरमें प्राण करणाकी जो महसस करने की पात्रता है, या जडता वर्तना है, उस जडता वर्तनाकी कम या ज्यादा स्थितीका जो अवतरणा है; और कोई सूक्ष्म कारणा एसीभी होती है कि, वातवरणकी स्पंदन वर्तना ही उस शरीरके रक्तसंचलनकी मासपेशिका के संतुलनको अस्पंदन में ले जाती है, यह कारण अनुरूप आई हुई असंतुलनता; जो वेदना वर्तनकी जानकारी देती है, उसके अनुरूप रोग धारणा समझी जाती है ।
परंतु यह रक्तसंचलन और मासपेशिके स्पंदनकी संतुलनता जिस सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जताको बाह्य वातावरणसे आकर्षित करती है । वह मार्गता बहुत सुकोमल तरंग अनुरूप ऊर्जा प्रसादता कोमलता अवतरीत करती है, उस कोमल तरंगताको आत्मसात कर.
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१३- सकनेवाले शरीरमें उस सूक्ष्म मार्गताका स्पंदनोंकी एक कोमल वर्तना ऐसी कृतकृत्यता करती है कि उसके अनुरूप दिमाग कार्य प्रसारित हृदयसे जुडनेवाली भावना प्रसादीता अनुरूप शक्ति दायित्वता, अपनेआप सिद्धता लेती है । कि, जिससे अष्ट विकार वर्तन रुपांतरीत होकर अविकार धारणा अनुरूप प्रसादीत होनेवाली, उस अवस्थामें ध्यान, भक्ति, संवर्धन होकर महा ऊर्जा वर्तनमें आनंदमयी वर्तना अवतरणा लेती है।
परंतु अगर एकाद शरीरमें यह रक्त संचलन और मासपेशी के स्पंदन की असंतुलनता हुई हो तो अगर उस असंतुलीत कार्यतामें कोई उपरका उपाय करके याने रक्तसंचलन और मासपेशी इसके कार्यता को अबाधित रखकर, वह असंतुलीत कार्यता शरीरमें होकर भी; जो असंतुलीत कार्यता बाहर के वातावरणसे सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता आकर्षण में न ला सकने से, वेदना वर्तनमें जाती है, उस शरीरको, उसके आकर्षण पात्रताके सिवाय उपरसे कोई, अगर वह सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता 'प्रवाह स्वरुप में" प्रदान कर सके तो, धीरे धीरे उस शरीरके उपर रक्तसंचलन की गती और.मासपेशियोंकी स्पंदन संतलनता, इसके कार्य संतुलीत होकर रोग निवारणा हो सकती है । यह रोगग्रस्त शरीरको उपरकी सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता देनेकी जो उपचारिता है वह एक विशिष्ट सूक्ष्म तरंग संचलनकी रीत होनेसे उस सूक्ष्म तरंग संचलनका प्रदान करनेकी पद्धतीके कार्य वर्तना को संवेदना शास्त्र ऐसी संबोधन पात्रता दी जा रही है।
अब सहज ही ऐसी उत्सुकता होगी की, संवेदन शास्त्र अनुरूप अवतरीत होनेवाली उपचार पद्धती, शरीरमें कहां और किस रितीसे प्रसादीता देती है ?
संवेदन शास्त्र मार्गताके अनुरूप - प्रथम जिस शरीर में बाहरके वातावरण की सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता प्रदान करनेकी अवतरणा; क्रियतामें लायी जाती है । उस शरीर को बाहरकी सूक्ष्म मार्गता प्रवाहित ऊर्जता उस शरीर के हृदय में इस तरह कार्यता अनुरूप आकर्षण पात्रता करनी पडती है कि सामने बैठे हुए शरीरकी १) रक्तसंचलनकी गती; २) उस शरीरके श्वास कार्य पात्रताकी ऊर्जा ग्रहणकी पात्रता और ३) सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता प्रदान करनेवाले शरीरके श्वास की ऊर्जा ग्रहणकी पात्रता का अवतरण; एक पात्रतामें लाकर यह दोनों शरीरके श्वासकी पात्रता जितनी ऊर्जा बाह्य वातावरणसे ग्रहण करती है, उससे दस गुना सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता आकर्षण करके हृदय पात्रता पर वह दसगुना आकर्षण करणामें आनेवाली ऊर्जा पात्रता; ऊर्जा प्रदान करनेवाले शरीरके कार्यका नाश नही करेगी ऐसी पात्रता अवतरीत करनी पडती है, उसके अनुरूप ही अगर किसी भी शरीरको; जिसको रोग हुआ है उसको; इस पात्रता विशेष स्थितीमें बाहर के. वातावरणकी सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता प्रदान की जा सकती है ।
यह प्रदानतामें आनेवाली सूक्ष्म प्रवाहित ऊर्जता उस रोग पात्रित शरीरके त्वचा और नाभी केंद्रसे ऐसी प्रवाहित की जाती है कि, वह सूक्ष्म तरंगाईता सीधा हृदय कार्यताको बल धारणामें लेकर मांसपेशिकाओंका उस शरीरमें जैसे उचित, अनुचित संतुलन स्पंदन होगा उस स्पंदन को प्रदान होनेवाली वह ऊर्जता, स्पंदनकी सुकर संतुलित वर्तना अनुरूप अवतरीत करेगी, याने वेदना. वर्तित उस मांसपेशिकाओंके स्पंदन को हृदय रक्त संचलन गती अनुरूप प्रदान होनेवाले सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता ऐसे स्पंदन में लेती है कि जिसके अनुरूप__
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१४ रक्त संचलन और मासपेशी स्पंदन को संतुलन वर्तना धीरे धीरे अवतरित होती है । इस अनुरूप यहां एक मार्गता ऐसी अवतरित की है कि, वह सूक्ष्म मार्गता प्रवाहिता ऊर्जता शरीर में आत्मसात करके; विशिष्ट पद्धती से कागजपर ऐसी रेखाकृतीमें ली है कि, कोईभी असंतुलन होनेवाली रक्तसंचलन गती और मासपेशीओंका स्पंदन, वर्तन शरीर पर विशिष्ट केन्द्र अनुरूप वह रेखाकृती याने यंत्र करणा लगायेगा तो, उस यंत्रके विशिष्ट मार्गरखासे उस शरीरमें अगर असंतुलीत वर्तन होगा तो बाह्य वातावरणसे सूक्ष्म मार्गता ऊर्जता वह शरीरमें अपनेआप प्रवाहीत होकर वह शरीर वेदना वर्तन नष्ट करणामें आयेगा । यह संवेदन शास्त्र अनुरूप होनेवाली उपचार वर्तना मासपेशी कोईभी दूसरा औषध उपयोग करने या न करने से बाध्यतामें नहीं आती है । कारण यह ऊर्जा प्रसादता सरलतासे
१) रक्त संचलन गती २) श्वास कार्य ३) त्वच और ४) नाभी करणासे प्रसाद अनुरूप ऊर्जा प्रसादिता वर्तन करनेवाली होनेसे; और शरीर पचन पात्रता अनुरूप इस पद्धतीका अवलंबन न लेनेसे; आहार विहार या दूसरी कोई बातके विशिष्ट तौरपर आनेवाली नियम पात्रता यह उपचार पद्धती अवलंबित नही करती है । परंतु इस उपचार पद्धती अनुरूप उपचार करनेसे शरीर प्रसादता शुचिरभुतता अवतरित करने से; आहार विहार, व्यसन आधिनता को अपनेआप धीरे धीरे फर्क पड़ता है ।
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संवेदना जीवनकी शुद्धता और सुखकी माता है। संवेदना दु द्वार है प्राण और पंचतत्वका एक भुली हुई पहचान जीवनकी,भुली हुई याद जीवनकी,
एक भुली हुई उडान जीवनकी, . एक भुली हुई रफ्तार जीवनकी,
एक अखिली कली जीवनकी, बंद हुई गठरी खुदकी, बंद है, जरा ताला तो खोलो संवेदनाका, अंदर तालेमें, संवेदनाही कार्यरुप तत्वरुप, प्रसादरुप और जीवनके सुखरुप बहारमें है, संवेदनाके परम कोशमें । संवेदना जीवनका परम शास्त्र है । संवेदना हृदयका काव्य है । संवेदना एक दुसरेकी, विश्व कुटुंबकी, . और खुदकी पहचान है, जहाँ आत्मसत्ता, विराजमान है।
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शरीर चलनचलीता में एक बात तो पक्की है, कि शरीरको बिमारी से ठिक करने का काम शरीर ही करता है, बाकी किसीभी तरी के से किया जानेवाली उपचार वर्तना शरीरको ठिक करने को सहायता देती है । यहाँ शरीरको-जो बिमारी ठिक करने के लिए जो उचित आयाम से मदत कि जाती है, या उचित सक्रियता शरीर पा सके, ऐसी नियोजनता कि जाती है। या जिस किसी माध्यम से शरीरको बीमारी को ठिक होने को उर्जा धारणता दि जाती है। उस अनेक आयामोंके तरीकेको यहां सुगम धारणता के अवतरण को उपचारीता करके संबोधन में लिया जा रहा है ।
शरीर को जब एकाद बीमारी होती है, या उस बीमारी की प्रत्यक्षता अब तक पहचान में नहीं आयी है - तब उस रोग की पहचान - समझ में नहीं आकर भी - अंदर रहती है ,तब वह बीमारी की स्थति जितने आयामों में शरीर में है , याने -
१- प्राण, २- पंचतत्व ३- शरीर तापमान इन आयामों से - ऊन आयामों की जड़ता धारणता तथा सूक्ष्मता धारण से बिगड़ गयी होती है ।__
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उस वक्त शरीर में प्राण पंचतत्व , शरीर उष्णता इनके जणता और सूक्ष्मता इनमें से जिस आयाम में शरीर में बिगाड़ हुआ है , उसकी निदान (पहचान , निष्कर्ष ) होकर उस बिगड़ने वाले आयामों पर उपचार होना आवश्यक है उसी तरह शरीर में किसी भी अवयव को बीमारी हो तो वह उसी अवयव को बिमार मानकर इलाज करने के बजाय - उस अवयव के सूक्ष्मता तथा जड़ता धारण को स्वस्थ आवृत रखने की शरीर में कौन से केन्द्र हैं , उन केन्द्र धारण के उपर भी इलाज होना अति आवश्यक है।
इसलिए शरीर में कोई बीमारी - कितने आयामों में बिमारी की प्रगाढ़ता ले सकती है । इसकी परीक्षणता उचित निष्कर्ष तक आविष्कृत होना , यह शरीर शास्त्र के अनुरूप स्वास्थ्य प्रवृत्तता में सहायक होने के - याने उपचार वर्तीता करने की प्रथम पात्रता होना चाहिए । इसके अनूरुप संवेदना के वर्तना में यहाँ उपचार सहायता करते समय ।
1) शरीर में उचित पात्रता अनुरूप सूरज किरण प्रविष्ठ किये जाते हैं।
२) प्रत्येक शरीर स्वास्थ आवृत्त होने के लिए हर एक शरीर में उस शरीर की स्वास्थ धरण की जो ऊर्जी अंकना है।वह उस शरीर कोआवश्यक है। क्योंकि शरीर तापमान के उचित अंकना अनुरुपता में ही, उस शरीर में उष्णता है, उसके तौर पर
अ. रक्तसंचलन गती
ब. हृदय कार्य में खून अंदर बाहर होने की जो तत्परता है, वह क्रिया वर्तित होती है।
3) इसलिए शरीर में तापमान की गति अगर कम ज्यादा हो गई तो शरीर में अस्वास्थ या बीमारिकी अस्वस्था प्राप्तः होती है.
4)तथा तापमान के उस डवांडोल स्तिथि में अगर वातावरणसे किसी
कीटाणुका प्रवेश हो गया वह कीटाणु डावाडोल तपमानके बलपर शरीर में बीमारी पैदा कर सकता है. इसलिए शरीर में जो उष्णता तत्त्व है. जिसके कारन शरीर में प्राण और पंचतत्व इनकी एक सलग्नता स्तित है वह उष्णता ( तापमान ) शरीर में उचित धारणता में सूर्य उर्जा पात्रता वर्तन में निर्माण करके शरीर को सहायता प हुचानेकी अचूक उपाय योजना, अचूक निष्कर्ष ( निदान ) पात्रता से करने की संवेदन शास्त्र सम्बोधन प्रक्रिया धारणता में यहाँ प्रयास पात्रता अवतारिता ले रही है.
इस उपचार पद्धतिके अनुरूप नीचे के तौर में उपचार सहायता उपलबद्ध की जाती है.
1) हिलींग
2) कागज के ऊपर के यंत्र
3) उपकरण यंत्र( प्लास्टिक )
4) मंत्र उचार करके
हिलींग - शरीर योग मार्ग से विशिष्ट उष्णता सूरज ऊर्जा से लेकर दूसरा शरीर स्वाथ्य पात्रतापर ले जा सके इतने अंकनामें वह उष्णता प्रक्षेपित करके रोग निवारण करने के योजना का अवलम्बन किया जाना .
2) कागज के ऊपर के यंत्र - विशिष्ट स्पंदन शरीर में धारण करके जो रोग
(1) स्पंदन पात्रता अनुरूप. (2) शरीर उष्णता के असंतुलन से हुए है .
उन रोगों को सुसंगति स्पंदन पात्रता में आने के लिए जिस तरीके की स्पंदन पात्रता आवश्यक है . ऐसी सुचलित स्पंदन ता तरंग अनुरूप कागज पर स्पंदन रचना आवर्तना में लेकर यंत्र नामक उपचार वर्तना कागज पर तैयार की जाती है .
यह यंत्र केंद्र अनुरूप स्पर्शित रखनेसे वातावरण से विशिष्ट उष्णता तथा स्पंदन प्रवाहिता उस शरीर में प्रवाहित होकर बीमारी ठीक करने को शरीर को सहायता दी जाती है .
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3) उपकरण यंत्र उपचारिता - प्लास्टिक के विशिष्ट आकर का उपयोग करके तथा कागज के ऊपर के यंत्रोको उस प्लास्टिक के विशिष्ट आकर से ऐसी प्रवाहितता दी जाती है की वह प्लास्टिक की उपकरणता शरीर में विशिष्ट केंद्र अनुरूप विशिष्ट ध्वनि के माध्यम से जो शब्द प्रयोगित स्पंदन की उच्चार के साथ शरीर में स्पर्शित रखें तो- अतिजलद वातावरण अनुरुप बाह्यवर्त होने वाला ऊर्जाका प्रवाह शरीर में प्रविष्ठ होता है। और उस सहायक स्पंदन ध्वनि के माध्यम से हृदय के किवाड़ सक्षम धारणता पर उसकी प्रक्रिया करके खून की गती - संतुलन में लाकर शरीर आराम दायित्व प्राप्त करने को सक्षमता पाता है।
४) मंत्र उपचार करके – संवेदन शास्त्र अनुरुप की जाने वाली मंत्र प्रयोगता किसी भी धर्म जाति को विशिष्टता में नहीं लेकर विशिष्ठ स्पंदन को विशिष्ठ ध्वनिमें गुंथन करके उसकी
सघनता करके - वह सघनता शब्द अनुरुपता में ली जाती है । अगर वह स्पंदन सघनता की शब्द वर्तना (मंत्र) उचित अनुरुपता में धारण की जाय , तो शरीर में स्वास्थ अनुरूप उचित स्पंदनता तथा उचित उष्णता (ऊर्जा) प्रवाहित होकर - बीमारी ठीक होने को सहायता मिलती है।
शरीर दोहरी स्थिती पात्रताका एक मध्य आयाम है।
१) स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य.
२) जिंदापन और मुर्दापन.
इन स्थितिमें "आयु काटनेवाले" शरीर नामके मांसमजाके सुसंचलन तथा बुद्धि विचरीत वर्तनामें; अवतरीत होनेवाली रचनाको मनुष्य कहलाया जाता है । इस मनुष्य शरीरके वर्तनमें जब जिंदापन अवतरीत है, तब स्वास्थ्य या अस्वास्थ्य स्थिति धारणको लेकरही जीना पडता है, उसी स्थिति धारणमें जब अस्वास्थ्य वर्तना जगती है, तब शरीरके अंदर जो "पहचान लेनेकी सत्ता है" याने प्राण है; उसको इसतरहकी पहचान आती है कि, यह सुखदायक नहीं है । - अब यह सुख संवेदनमें न आनेवाली वर्तना शरीरमें जब घटती है, तब उसका 'मूलश्रोत' याने निर्मिती स्थान कहाँ है? इसके शोध वर्तनमें जाये बगैर शरीरको स्वास्थ्य प्राप्ततामें ले जाना कठीन है, क्योंकि अनेक अनेक तरीकेसे शरीर अस्वास्थ्य पात्रता धारणतामें आता है, तो जितने आयामोंमें या तरीकेसे शरीर अस्वास्थ पात्रतामें आता है; उतने आयामोमें जाकर एक एक आयामसे शरीरको ठीक करते रहनेसे । जो अनंत यात्रा शरीर स्वास्थ्यपर करनी पड़ती है, उसके अलावा या उसके साथ शरीर अस्वास्थ्यमें आनेका जो मूल केंद्र धारण है, उसको खोजे बिना उस केंद्रपर उपाय करके शरीरको स्वस्थ रखना आसान हो सकता है।
शरीरमें जो जिंदापन है, वह एक ऐसी स्थितिपर शरीरको आधार देता है, जिसको 'स्पंदन' करके कह सकते हैं; इस वर्तनके अनुरूप हमारे कार्यवर्तनमें हमने शरीर स्वास्थ्यपर जो जो शोधकार्य किया है, उसमें शरीरमें कोई भी बीमारी हो तो उसका मूल केंद्र शरीरका 'स्पंदन' है, तथा वह बिगड़ जानेसे शरीरमें रोग होते हैं, ऐसी सिद्धता पायी है। इसलिये हम शरीरका स्पंदन कैसे बिगड़ जाता है और उसके ठीक करनेकी उपाययोजना क्या है? उसकी प्रत्यक्षता अवतरीत करेंगे।
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